01 जून, 2011

बाबा के आंदोलन के मुद्दे



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यह लेख दैनिक भास्कर से साभार लिया गया हैऔर ज्यों का त्यों आप सभी के लिया यहाँ पर दिया जा रहा है। आप सभी की टिप्पणियां सादर आमंत्रित है।
(बाबा रामदेव के आन्दोलन को समर्थन देने के लिए Toll Free No. 02233081122 पर Miss Call करें । )

भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाबा रामदेव जो मोर्चा लगा रहे हैं, वह एक बेमिसाल घटना होगी। यदि दिल्ली में एक लाख और देश में एक करोड़ से भी ज्यादा लोग अनशन पर बैठेंगे तो इसके मुकाबले की घटना हम कहां ढूंढेंगे?


यह सबसे बड़ा अहिंसक सत्याग्रह होगा। इसका उद्देश्य जनता व शासन दोनों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध कटिबद्ध करना है। यदि आंदोलन सिर्फ सरकार के विरुद्ध होता तो उसे शुद्ध राजनीति माना जाता, लेकिन बाबा ने स्पष्ट कर दिया है कि सत्ता की राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने सबके लिए दरवाजे खुले रखे हैं। जो भी भ्रष्टाचार विरुद्ध हो, वह अंदर आ सकता है।


यह आंदोलन एकसूत्री नहीं है। चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात, ऐसा नहीं होगा। स्वयं बाबा रामदेव पिछले कई महीनों से देश के कोने-कोने में घूम रहे हैं। अब तक वे दस करोड़ से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष संबोधित कर चुके हैं।


आम जनता से ऐसा सीधा संवाद किसी प्रधानमंत्री ने भी अपने चुनाव अभियान के दौरान नहीं किया होगा। इस जनाधार का एक ही लक्ष्य है कि भारत से भ्रष्टाचार भगाया जाए। इस लक्ष्य की प्राप्ति किसी एकसूत्री कार्यक्रम से नहीं हो सकती और सिर्फ सरकार से मुठभेड़ करने से भी नहीं हो सकती।


इस अभियान में नए-नए मुद्दे जुड़ते चले जाएंगे और उन मुद्दों पर सरकार और जनता दोनों को अमल करना होगा। यह लड़ाई लंबी चलेगी। दिल्ली के रामलीला मैदान में रामदेव की लीला की यह शुरुआत भर है। इस लड़ाई के मुद्दे क्या-क्या हो सकते हैं, यह सोचना जरूरी है।


मेरे कुछ सुझाव ये है- सबसे पहला मुद्दा तो यही है कि देश के कम से कम 20 करोड़ लोग प्रतिज्ञा करें कि वे न तो रिश्वत लेंगे और न ही रिश्वत देंगे। किसी भी व्यक्ति को रिश्वत लेने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता, लेकिन ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं कि राजा हरिश्चंद्र जैसे व्यक्ति को भी रिश्वत देने को मजबूर होना पड़े।


लेकिन संकल्प यह होना चाहिए कि उस रिश्वतखोर के विरुद्ध बाद में आप सख्त कार्रवाई करवाएंगे। चुप नहीं बैठेंगे। दूसरा, देश के हर शहर-गांव में रामदेववाहिनी जैसी किसी संस्था की शाखाएं होनी चाहिए, जिन्हें कामचोरी या भ्रष्टाचार की खबर लगते ही उनके स्वयंसेवकों की टोली आ धमके ‘फ्लाइंग स्क्वाड’ की तरह। वे भ्रष्टाचारियों का अहिंसक घेराव करें। न मारें-पीटें, न गाली-गलौज करें। बस इतना काफी है।


तीसरा, देश में कोई सरकारी जवाबदेही या नागरिक अधिकार कानून बनना चाहिए, जैसा मध्यप्रदेश व बिहार में बना है। यदि सरकारी अफसर निश्चित समय में कोई काम करके न दें तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़े। यह बात अदालतों पर भी लागू हो। आखिर तीन करोड़ मुकदमे बरसों से अधर में क्यों लटके हैं?


चौथा, देश के सभी चुने हुए प्रतिनिधियों की चल-अचल संपत्ति की घोषणा प्रतिवर्ष हो, सिर्फ चुनाव के समय नहीं। देश के सभी राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों पर भी यह नियम लागू हो, चाहे वे चुनाव लड़ें या न लड़ें। कैबिनेट सेक्रेटरी से लेकर चपरासी तक सभी सरकारी कर्मचारी भी इस नियम का पालन करें।


यह देश के सभी जजों, फौजियों और पुलिसवालों पर भी लागू हो। यदि आयकर विभाग में जमा किए गए हर हिसाब को भी सूचना के अधिकार के तहत खोल दिया जाए तो बड़ी-बड़ी कंपनियों, तथाकथित एनजीओ और अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में चल रहे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी।


संपत्ति की घोषणा में नेताओं, अफसरों, जजों आदि के नजदीकी रिश्तेदारों को भी जोड़ा जाए। इसमें पत्रकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि खबरपालिका शासन का चौथा खंभा है। पांचवां, विदेशों में जमा काले धन की वापसी के लिए सरकार समयसीमा तय करे।


यदि उन देशों के बैंक सहयोग नहीं करें तो भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाए। उनके विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान चलाए। संयुक्त राष्ट्र से उनकी सदस्यता खत्म करवाए। उन्हें अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद, रिश्वतखोरी, तस्करी, मादक द्रव्य प्रसार, माफिया गतिविधि और चुनाव को भ्रष्ट करने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए।


छठा, काले धन की वापसी में यदि सरकार ढिलाई दिखाती है तो उसके विरुद्ध करबंदी अभियान चलाया जाए। अकेले स्विस बैंकों में इतना भारतीय पैसा जमा है कि भारत सरकार को 10 साल तक टैक्स उगाहने की जरूरत नहीं है। यदि भारत सरकार लापरवाही करे तो सारे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चले और नागरिक सरकार को टैक्स देना बंद कर दें।


सातवां, 500 और 1000 के नोटों को बंद किया जाए। देश के कुल नोटों के 84 प्रतिशत नोट ये ही हैं। कितनी विचित्र बात है कि देश के करोड़ों लोग 20 रुपए रोज पर गुजारा करते हैं। उनका 500 और 1000 के नोटों से कुछ लेना-देना नहीं है।


काले धन को चलाए रखने में इन बड़े नोटों की भूमिका सबसे तगड़ी है। ये खत्म होंगे तो सारे देश में बड़े लेन-देन चेक और क्रेडिट कार्ड से होंगे। देश का 90 प्रतिशत लेन-देन खुले में होगा। दुनिया के सभी मालदार देशों में प्रतिव्यक्ति आय यदि बहुत ऊंची है तो नोट छोटे हैं। डॉलर और पाउंड के 500 और 1000 के नोट नहीं होते।


आठवां, भ्रष्टाचार के विरुद्ध छह साल तक हीला-हवाला करने के बाद अब सरकार ने ‘संयुक्त राष्ट्र अभिसमय’ का पुष्टीकरण तो कर दिया, लेकिन उसे लागू करने के लिए ठोस कानून कब बनेंगे? भ्रष्टाचार विरोधी जांच एजेंसी स्वायत्त कब होंगी और भ्रष्टाचारियों की चल-अचल संपत्ति जब्त कब होगी?


नौवां, लोकपाल को लेकर सरकार जो खींचातानी कर रही है, उसी से सिद्ध होता है कि वह ‘यूएन कन्वेंशन’ को ईमानदारी से लागू नहीं करना चाहती। प्रधानमंत्री, सांसद, विधायक, नौकरशाह और जज सभी लोकपाल की जांच के तहत होने चाहिए।


दसवां, देश में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था कुछ वर्षो तक अवश्य लागू होनी चाहिए। व्यापक चुनाव सुधारों के साथ जनमत संग्रह व प्रतिनिधियों की वापसी का प्रावधान भी किया जाए। ग्यारहवां, भ्रष्टाचारियों के लिए तुरंत और कठोरतम सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए।


देश में व्यवस्था परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रश्नों पर क्रांतिकारी जनमत तैयार करना होगा। इस मामले में हमारे राजनीतिक दल विफल हो गए हैं। यह करने की संभावना आज रामदेवजी में ही दिखाई पड़ती है।



-यह लेख दैनिक भास्कर से साभार लिया गया हैऔर ज्यों का त्यों आप सभी के लिया यहाँ पर दिया जा रहा है

26 जनवरी, 2011

ठिठुरता हुआ गणतंत्र

चार बार मैं गणतन्त्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूं। पांचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतन्त्र-समारोह
देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छ्ब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डालर, पौण्ड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब
से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।

इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूं , जिस साल मैं समारोह देखता हूं, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतन्त्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है।

आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है?

जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है।

जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतन्त्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते?उन्होंने कहा-जरा धीरज रखिये। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाये। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिये।

दिये। सूर्य को बाहर निकालने के लिये सौ वर्ष दिये, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिये। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अन्तरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे

इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गये तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा-’हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिण्डीकेट वाले अडंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतन्त्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बतायेंगे।

एक सिण्डीकेटी पास खडा़ सुन रहा था। वह बोल पड़ा- ‘यह लेडी(प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है।वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?

मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूं। वह कहता है-’सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानंमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या ,उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे।

जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा-’ सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकला आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा।

साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा-’ यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’

स्वतन्त्र पार्टी के नेता ने कहा-’ रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा?

प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा-’ सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंशिल की अगली बैठक में इसका फ़ैसला होगा। तब बताउंगा।’

राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’

मैं इन्तजार करूंगा, जब भी सूर्य निकले।

स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है

अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।

स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतन्त्र-दिवस ठिठुरता है

मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है-’घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं।बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जायेंगे

लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिये कोट नहीं है। लगता है,
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है

पर कुछ लोग कहते हैं-’गरीबी मिटनी चाहिये।’ तभी दूसरे कहते हैं-’ऐसा कहने वाले प्रजातन्त्र के लिये खतरा पैदा कर रहे हैं।’

गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिये

गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।

जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झांकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिये, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आन्ध्र की झांकी में हरिजन जलते हुये दिखाये जायेंगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाये,लेकिन झांकी सजाये लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुंचने की कोशिश की थी। झांकी में अकाल-राहत कार्य बतलाये गये थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झांकी में झूठे मस्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अगूंठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झांकी में वह बात नहीं आयी। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी काण्ड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झांकी में यह दृश्य दिखाता- ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं

दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।

जो हाल झांकियों का, वही घोषणाऒं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहां अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा।

मैं एक सपना देखता हूं। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं।पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊंगा।

समाजवाद टीले से चिल्लाता है-’मुझे बस्ती में ले चलो।

मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं -’पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जायेगा।’

समाजवाद की घेराबंदी कर रखी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतान्त्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रान्तिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है-’ लो, मैं समाजवाद ले आया।’

समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ
उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं।’खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है

इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं।

इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुये हैं

यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है।

मैं एक कल्पना कर रहा हूं।

दिल्ली में फरमान जारी हो जायेगा-’समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है।उसे सब जगह पहुंचाया जाये। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बन्दोंबस्त किया जाये।

एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा-’लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इन्तजाम करो। नाक में दम है।’

कलेक्टरों को हुक्म चला जायेगा। कलेक्टर एस.डी.ऒ. को लिखेगा, एस.डी.ऒ.तहसीलदार को।

पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुंचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो।

दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे-’काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’

तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-’अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज
दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’

तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे-’सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इन्तजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स
दंगे से निपटने में लगा है।’

मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा-’हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुलत्वी किया जाये।’

जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जायें और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जायेगी।

-हरिशंकर परसाई


16 दिसंबर, 2010

दाग़ अच्छे हैं ! - डॉ. पुष्पेंद्र दुबे

दूरदर्शन पर कपड़े धोने के साबुन का एक विज्ञापन अक्सर आता है। कीचड़ में लथपथ बच्चे को देख माँ उसे डाँटती-फटकारती नहीं है। उसकी बढ़ाई करते हुए कहती है ‘दाग़ अच्छे हैं’। विज्ञापन से लेकर लोकतंत्र के मंदिर तक दाग़ों को अच्छा बताया जा रहा है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। जब भी इस विज्ञापन को देखता हूँ मेरे सामने अपने देश के पूजनीय लोकतंत्र के मंदिर में बैठने वाले ‘सज्जनों’ की तस्वीर घूम जाती है। उसी समय भजन की पँक्तियाँ भी गुनगुनाने लगता हूँ ‘लागा चुनरी में दाग़ छिपाऊँ कैसे’।

कैसा जमाना आया है। अब दाग़ को छिपाने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश करते समय दाग़ों को ज़ाहिर करना पड़ता है। ये दाग़ लोकतंत्र के मंदिर के पुजारियों ने बड़ी मेहनत से कमाए हैं। पूरे जीवन को इन्होंने दाँव पर लगा दिया। इन दाग़ों पर इन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व का अनुभव होता है। इनके संपर्क में जो आता है, स्वयं को धन्य अनुभव करता है। उसे ऐसा लगता है जैसे परमपद का स्पर्श कर लिया हो। ये दाग़ स्थानीय न होकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उजागर होते हैं। इसलिए इनकी ख्याति अखिल विश्व में फैल जाती है और इन्हें अपनी छाती चौड़ी करने का मौक़ा मिल जाता है। आख़िर जनता के प्रतिनिधि हैं तो उनकी ख़ातिर कुछ दाग़ अगर लग ही गए तो क्या हुआ। इन्हीं दाग़ों के बलबूते पर तो वोट कबाड़े जाते हैं। लोगों को डराया, धमकाया जाता है।

राजनीतिक दलों को अपनी जीत की राह ऐसे दगीलों से आसान दिखाई देती है। आज हर राजनीतिक दल यह कहने में गर्व का अनुभव करता है कि तुम्हारे ऊपर लगे हुए दाग़ अच्छे हैं। हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार, बलात्कार के प्रयास, डकैती, चोरी, छिना-झपटी, घोटाले, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, अपहरण, भूमाफ़िया, दंगे भड़काने जैसे दाग़ों को अब दाग़ नहीं माना जाता। ये तो उनके आगे बढ़ने के लिए किए गए संघर्ष की निशानियाँ हैं। दंगे भड़काने का दाग़ सबसे अधिक पूजनीय माना जाता है। यदि ये निशानियाँ नहीं होंगी तो जनता उन्हें पहचानेगी कैसे ? जनता ने भी अब मान लिया है कि लोकतंत्र के मंदिरों में अब ऐसे पुजारियों को ही प्रवेश मिल सकता है। अब दाग़ लगे लोगों के सामने यह धर्मसंकट नहीं रहता कि ‘घर जाऊँ कैसे’। जब ऐसे ही दगिले को एक राजनीतिक दल ने चुनाव में टिकट दे दिया तो हमने टिकट देने वाले से पूछ ही लिया कि आप तो शुचिता, पवित्रता और भारतीय संस्कृति का बड़ा दम भरते हैं। आपके यहाँ ऐसे दगिलों को टिकट क्यों दिया गया। वे बोले अब हमने तो दे दिया जनता चाहे तो उन्हें पटकनी दे। मुझे भी पता था कि जनता कभी ऐसा करेगी नहीं। दगिले ने बड़ी मुश्किलों से ‘बाहुबली’ की उपाधि हासिल की थी।

आख़िर लोकतंत्र के मंदिर में बाहुबलियों की ज़रूरत कब पड़ जाए, कोई नहीं जानता। ये नारा भी लगाते हैं गर्व से कहो हम दाग़ी हैं। ये अपने दाग़ तो दिखाते ही हैं, साथ में यह भी कहते हैं कि मेरे दाग़ दूसरों के मुक़ाबले में कम हैं। कुछ डरपोक क़िस्म के भी होते हैं। वे अपने दाग़ों को विरोधियों की साज़िश बताते हैं। राजनीतिक दलों के प्रमुख उनके दाग़ों पर यह कहकर बचते रहते हैं कि अभी न्याय के मंदिर ने लोकतंत्र के मंदिर के पुजारी को किसी भी दाग़ में दोषी क़रार नहीं दिया है। तब तक तो वह पुजारी रह ही सकता है। उस पर लगे हुए ‘दाग़’ तो अच्छे ही माने जाएँगे।

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